Friday, 25 January 2019

कार्ल मार्क्स के अलगाव सिद्धांत

कार्ल मार्क्स के अलगाव सिद्धांत (Karl Marx alienation theory in Hindi)

विशिष्ट समाजशास्त्रविद कार्ल मार्क्स के अलगाव सिद्धांत उनके दुवारा दिए गए महत्वपूर्ण सिद्धांतो में से एक अन्यतम है। 

दोस्तों कार्ल मार्क्स ने उनके इस सिद्धांत में क्या कहाँ है, क्या आप जानना नहीं चाहोगे? तो चलिए आज हम इस लेख में इस महान जर्मन दार्शनिक की इसी सिद्धांत को जानने की कोसिस करते है।

[उन्होंने उनके तीन बिख्यात ग्रन्थ Economic and Philosophical Manuscript (1844), The German Ideology (1846) और Thesis on Ideology में इस अलगाव सिद्धांत को विस्तार से आलोचना किआ है]
 
Karl marx alienation theory in hindi
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मार्क्स ने इस सिद्धांत के दुवारा पुंजीवादी समाज व्यबस्था में सामग्री उद्पादन कारिओ के मनोभाव को ही ब्रिस्टिट रूप से ब्याख्या किआ है। 

उनके अनुसार पूंजीवादी उद्पादन व्यबस्था में जो जो साधारण श्रमिक या कर्मी होते है वो केबल किसी वस्तु को उद्पादन करते है ताकि उसके माध्यम से वे कुछ धन अर्जन कर पाए।

इसके वजह से उनके मनमे सामग्री के प्रति कोई भी प्रेम या लगाव नहीं रह पाता। 

ये साधारण श्रमिक लोग उद्पादित वस्तु तथा उद्पादन व्यबस्था के प्रति अलगाव भाव अनुभव करते है। उनका सिर्फ मतलब होता है सिर्फ और सिर्फ पैसो से। 

उदाहरण के रूप में किसी चीनी उद्पादनकारी व्यक्तिगत प्रतिष्ठान में जो जो श्रमिक काम करते है, उनके मनोभाव में कभीभी उद्पादित वस्तु को लेकर प्रेमपूर्ण भावना नहीं होता, क्योकि वे जो भी उद्पादन करते है वो उनके खुदके लिए नहीं होता।

वो केबल उद्पादन करते है ताकि कुछ धन अर्जन कर सके, उस व्यक्तिगत प्रतिस्ठान में काम करते हुए उनके मनमे धन के प्रति ही आकर्षण ज्यादा होता है। कार्ल मार्क्स के अलगाव सिद्धांत का प्राथमिक ब्याख्या यही है।

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कार्ल मार्क्स के अलगाव सिद्धांत - अब इसको थोड़ा विस्तार से जानते है 

दोस्तों मानब सभ्यता के आरम्भ में इंसान जो जो चीज़े उद्पादन करते थे, वो सभी अपने लिए, अपने परिवार, अपने दोस्तों के लिए ही होता था। 

उस समय इंसानो को ये सोचके बड़ा ही आनंद आता थी की किसी वस्तु को उसने खुद उद्पादित किआ है, जो उसका खुदका है तथा खुदके लिए है। 

लकिन धीरे धीरे मानब समाज बड़ा होने लगा और लोग अकेले सारे कार्य करके खुदके लिए उद्पादन करने में असमर्थ होने लगे।

इसी कारण मानब समाज में धीरे धीरे विनिमय प्रथा का आरम्भ होने लगा। कार्ल मार्क्स के अनुसार विनिमय प्रथा ही उद्पादन व्यबस्था में इस अलगावपूर्ण भावना का आरम्भ है। 

क्योकि इसमें व्यक्ति जो जो चीज़ खुद उद्पादन करता था वो ज्यादातर खुद उपभोग करने में शक्षम नहीं हो पाता था; बल्कि विनिमय में ही ज्यादातर व्यय करना पड़ता था।

कार्ल मार्क्स ने फिरसे कहाँ है की पूंजीवाद के विकाश के कारण इस अलगावपूर्ण भावना का और भी ज्यादा विकाश होने लगा। 

क्योकि पहले विनिमय प्रथा में उद्पादन कार्य को व्यक्ति खुद नियंत्रित करते थे लेकिन पूंजीवाद के विकाश के कारण वो व्यबस्था अब पूंजीपति नियंत्रण करने लगे।

यहाँ अब पूँजीपतिओ का सिर्फ और सिर्फ एक ही मकशद रह गया और वो था 'लाभ' 

यहाँ पूंजीपति श्रमिक नियोजित करते है ताकि उद्पादन कार्यो को अच्छे से चलाया जाये तथा अधिक सामग्री उद्पादन करके बाजार में बेचकर उससे लाभ उपार्जित किआ जाये। 

नियोजित श्रमिक कार्य करते है ताकि अपने कार्य के बदले मालिक से कुछ पारितोषिक लिआ जाये।

लकिन इस पुरे प्रक्रिया में आपको श्रमिको के मनमे उद्पादित सामग्री के प्रति लगाव देखने नहीं मिलगा। अच्छा हो या बुरा लेकिन पूंजीवादी व्यबस्था में श्रमिक समाग्री को उद्पादन करके बिलकुल भी गर्व अनुभव नहीं करता है 

मार्क्स के अनुसार उद्पादित वस्तु के प्रति श्रमिको का एहि मनुभाव को 'अलगाव' कहाँ जाता है।

आशा करता हूँ की ये लेख आपके लिए सहायक हुआ होगा।