कार्ल मार्क्स के द्वंद्वात्मक भौतिकवाद (Karl Marx Dialectial Materialism in Hindi)
कार्ल मार्क्स के द्वंद्वात्मक भौतिकवाद उनके दुवारा दिए गए बौद्धिक व्याख्याओ का मूल है। लकिन क्या आप जानते है कार्ल मार्क्स के द्वंद्वात्मक भौतिकवाद उनका मौलिक सोच नहीं है अर्थात पहले भी इसके बारे में व्याख्या किआ गया था। इस द्वंदात्मक भौतिकतावाद के बारे में सबसे पहले व्याख्या किआ था विशिष्ट समाज दार्शनिक 'हेगेल' ने।
लकिन हेगेल के द्वंद्वात्मक सिद्धांत से मार्क्स का सिद्धांत काफी अलग। इस लेख में हम हेगेल के सिद्धांत को आलोचना नहीं करेंगे बल्कि मार्क्स के सिद्धांत को ही आलोचना करेंगे। तो चलिए कार्ल मार्क्स के ये द्वंद्वात्मक भौतिकवाद क्या है ? अध्ययन करते है।
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द्वंद्वात्मक भौतिकवाद सिद्धांत: -
मार्क्स के अनुसार वस्तुजगत को केंद्र करके मानब समाज में जो संघर्ष होता है उसी को द्वंद्वात्मक भौतिकवाद कहाँ जाता है। इसके अनुसार मानब समाज में हमेशा ही एक वस्तुकेन्द्रिक अवस्था चलता रहता है इस अवस्था को उन्होंने 'स्थापना या
thesis' का नाम दिआ है। लकिन जैसे जैसे समाज बड़ा होता या फैलता जाता है, वो अवस्था मानब की जरूरतो को पूरा करने में असमर्थ होता ज्यादा है।
यही पर 'विलोम या
Antithesis' का जनम होता है। ये विलोम या
Antithesis लोगो के मनमे जनम होता है, ताकि पुराने 'स्थापना' की पतन करवाके नया अवस्था का जनम दिआ जाये। इस नए अवस्था का महत्व इसीलिए ज्यादा है, ताकि वस्तुकेन्द्रिक जरूरतो को पुनः अच्छी तरीके से सफल कर सके।
जैसा की आप समझ सुके होंगे की 'स्थापना या
thesis' और 'विलोम या
Antithesis' एक दूसरे के शत्रु होते है।
thesis हमेशा ही समाज में रहना चाहता है लकिन
Antithesis उसको रहने देना नहीं चाहता। एक समय
Antithesis प्रभाव ज्यादा हो जाने के कारण इन दो परस्पर विरोधी शक्तिओ के बिच संघात होता है और उस संघात के कारण बाद में स्थापना या
thesis का परिवर्तन होके नया स्थापना प्रतिष्ठित होता है। कार्ल मार्क्स ने इसी संघर्ष को उनके भाषा में 'संश्लेषण या
synthesis' आख्या दिआ है।
कार्ल मार्क्स कहते है की समाज में ये प्रक्रिया निरंतर चलता रहता है। ये
Thesis और
Antithesis के बिच हुए
synthesis या संश्लेषण के कारण जो नया
Thesis या स्थापना प्रतिष्ठा होता है वो भी एक समय पर पुराण हो जाता है तथा मानब समाज की जरूरतो को पूरा करने में असमर्थ हो जाता है।
उसी तरह पुनः
Thesis के विरुद्ध
Antithesis विकशित होता है और एक समय पर इन दोनों के बिच संश्लेषण या
synthesis के जरिए समाज परिवर्तित होता है।
मानब समाज की विकाश मूल सिद्धांत यही है। मार्क्स के अनुसार समाज इसी तरह से क्रमशः विकाश की ओर आगे बढ़ता है। द्वंद्वात्मक भौतिकवाद सिद्धांत के माध्यम से कार्ल मार्क्स ने मानब समाज के विकाश स्तर को 6 मुख्य भागो में बाटा है। वो कुछ इस तरह के है :
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1. आदिम स्तर 2. दासत्व स्तर 3. भूमिपति स्तर 4. पूंजवादी स्तर 5. समाजवादी स्तर 6. समयाबादी स्तर।
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द्वंद्वात्मक भौतिकवाद सिद्धांत का उदाहरण
उदाहरण के रूप में एक समय ऐसा था जब इंसान सामान्य तरीके से ही कृषि कार्य करते थे। उन कृषि कार्यो में लोग ना कोई यन्त्र का व्यबहार करते थे और ना ही कोई रासायनिक उर्वरक का। जंतु तथा मानब श्रम और प्राकृतिक उर्वरक ही उस समय के कृषि कार्य का मूल विशेषता था।
लकिन इस परंपरागत पद्धिति के माध्यम से उस समय ज्यादा उद्पाद नहीं होते थे। हालाकि ये बात भी थी की उस समय जनसंख्या बहुत ही कम थी। जिसके कारण समाज बड़े ही आसानी से चल पाते थे।
दोस्तों एहि पर ये जो पद्धिति चल रही थी वो है 'स्थापना या
thesis' लकिन समय बीतते बीतते मानब समाज बड़ा होने लगा, समाज में जनसंख्या भी पहले से बहुत ही ज्यादा बढ़ने लगा।
और जो परंपरागत पद्धिति से उद्पादन कार्य चल रहा था वो भी अब इतने सारे लोगो के लिए उद्पादन करने में असमर्थ होने लगे। लोगो के मनमे अब धीरे धीरे उस परंपरागत पद्धिति के विरुद्ध भाव जाग्रत होने लगे।
ये जो विरुद्ध भाव है वो है
Antithesis या विलोम। इसीलिए एक समय ऐसा आया जब समाज के लोगो ने अपने प्रयोजनो पूरा करने के लिए इन परंपरागत कृषि पद्धिति को ही बदलने की कोसिस की। ये पहल या कोसिस ही 'संश्लेषण या
synthesis' है।
synthesis के जरिए पुराने कृषि पद्धिति के विरुद्ध नए पद्धिति का संघर्ष होता है और उसके माध्यम से कृषि पद्धिति में परिवर्तन आता है और इसी परिवर्तन से नए कृषि व्यबस्था का स्थापना भी होता है। ये नया कृषि व्यबस्था ही नया 'स्थापना' है।
कुछ समय तक ये नया कृषि व्यबस्था लोगो की प्रयोजनो को पूरा करने में शक्षम तो होता है लकिन एक समय में ये भी पुराण हो जाता है और पुनः द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की प्रक्रिया समाज में सुरु हो जाता है। [द्वंद्वात्मक भौतिकवाद एक चक्रीय प्रक्रिया जो समाज में चलता ही रहता है].
