कार्ल मार्क्स का वर्ग संघर्ष सिद्धांत
दोस्तों हम सभी तो ये जानते है की जर्मन दार्शनिक कार्ल मार्क्स के सभी सिद्धांत वस्तुजगत को केंद्र करके ही विकशित हुआ है, चाहे वो ऐतिहासिक भौतिकताबाद या फिर मानव समाज परिवर्तन के छे मुख्य स्तर ही क्यों ना हो।
उनके इन्ही सिद्धांतो में से एक अन्यतम है उनका वर्ग संगर्ष सिद्धांत। उनका ये वस्तुकेन्द्रिक सिद्धांत भी पूर्ण रूप से वस्तुजगत के ऊपर प्रतिष्ठित है।
उनके इन्ही सिद्धांतो में से एक अन्यतम है उनका वर्ग संगर्ष सिद्धांत। उनका ये वस्तुकेन्द्रिक सिद्धांत भी पूर्ण रूप से वस्तुजगत के ऊपर प्रतिष्ठित है।
मार्क्स के अनुसार मानव जाती का इतिहास ही श्रेणी या वर्ग संघर्ष का इसिहास है, मानव समाज एक स्तर से दूसरे स्तर तक इसी संघर्ष के माध्यम से आगे बढ़ते है।
तो फिर चलिए इसको और ज्यादा कठिन बनाये बिना उनके ही दृष्टिकोण से आकर वर्ग संघर्ष सिद्धांत को आलोचना करते है।
वर्ग संघर्ष सिद्धांत :
- मार्क्स ने उनके समय की पूंजीवादी व्यबस्था की व्याख्या करते हुए ही इस सिद्धांत को आगे रखा है।
उनके अनुसार पूंजीवादी व्यबस्था में दो मुख्य वर्ग के लोग होते है। एक होते है बुर्जुआ और दूसरे होते है प्रोलिटेरिएट।
बुर्जुआ जो वर्ग है, वो है समाज के धनी पूंजीपति श्रेणी। इस श्रेणी के पास ही उद्पादन के सारे उपादान मौजूद होते है, जैसे की धन, जमीन और श्रमिक (Land, Labour और Capital).
दूसरी ओर जो प्रोलिटेरिएट वर्ग होते है, वो होते है समाज के श्रमिक श्रेणी।
इनके पास कोई भी क्षमता नहीं रहता। वो केबल अपने जीबन-यापन के लिए पूँजीपतिओ के निचे उनके उद्द्योगो या कर्म प्रतिस्थानो में काम करते है या फिर यु कहे तो धन के बदले अपना श्रम बेचते है।
दोस्तों पूंजीपति या बुर्जुआ और श्रमिक या प्रोलिटरिएट वर्ग के इस कहानी में अचल मौर अब आता है।
दराचल बात यह है की पूंजपति हमेशा ही अपने लाभ के लिए सोचता है, और इस लाभ को दिन व दिन बढ़ाने के लिए वे श्रमिकों की वेतन कम कर देते है या उनसे अधिक समय काम करवाते है।
दराचल बात यह है की पूंजपति हमेशा ही अपने लाभ के लिए सोचता है, और इस लाभ को दिन व दिन बढ़ाने के लिए वे श्रमिकों की वेतन कम कर देते है या उनसे अधिक समय काम करवाते है।
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लेकिन श्रमिक भी तो इंसान ही है, वे भी अपने स्वार्थ की रक्षा के लिए सदा सतर्क रहते है। पूंजीपतिऔ के दुवारा उद्पादित किए गए सामग्रीओ के दाम दिन व दिन बढ़ने तथा वेतन कम हो जाने के कारण उनकी आर्थिक-सामाजिक, शारीरिक अवस्था भी दिन व दिन ख़राब होने लगते है।
ये परिस्थिति जब दीर्घ समय तक ऐसे ही चलता रहता है और दोनों वर्गों के बिच जब दुरी ज्यादा बढ़ते जाते है तब एक समय ऐसा आता है जब श्रमिक वर्ग अपने स्वार्थ की उद्धार हेतु संगठित हो जाने के लिए बाध्य होते है।
और बाद में इसी संगठित रूप से मालिक पक्ष के विरुद्ध संग्राम में लिप्त होते है। कार्ल मार्क्स कहते है की इस संघर्ष में पूँजीपतिओ का पराजय होता है और उद्पादन व्यबस्था को एक नयापन प्राप्त होता है।